#नौकरी! (याद नही कब लिखी थी आज ब्लॉग में दिखा, साझा कर रहा हूं, पढ़िए भावनाओं को शब्दों में सँवारा है)
शाम हो चली थी, मुझे शहर की सड़कों पर चलते, थकान महसूस होने लगी, सामने चाट के ठेले पर स्टूल देख मैं वहां बैठ गया और आते जाते लोगों को निहारने लगा, तभी प्लेट धोते हुए लड़के ने मुझे एक टक देखा और पूछा, क्या लेंगे साहब?
मैंने कुछ नही कहा, वह पास आ गया और फिर से मुझसे पूछने लगा, मैंने नही में सर हिला दिया।
तमाम मजबूरियों के बाद भी लोग जीना नही छोड़ते, उम्मीद वो तिनका है जिसका सहारा न जाने कितनी जिंदगियों को मौत के समंदर में डूबने से बचाता है।
मेरी कहानी आप सब जैसे ही तो है, हां मैं तुम ही हूं, सच कहना, क्या तुम्हें भी लगता है, जिंदगी बेमानी हो चली है?
मुझे भी, पता है, ये भ्रम मात्र है, हम यूं ही नही हैं, हमारे होने का उद्देश्य है।
हमारी सांसों का कारण है, कोई भी यहां अकारण नही है, हां सच में!
मैं नौकरी खोज रहा हूं, पर मैं नौकरी करना नही चाहता, मां कहती है नौकरी कर ले, इसलिए तलाश कर रहा हूं, मां क्यों कहती है मैंने उनसे पूछा तो जाना!
दुनिया की रस्म है, पढ़ लिख कर नौकरी नही करोगे तो क्या खेती करोगे, बाबूजी ने किया न खेती, क्या बनाया है अब तक?
बाबूजी, बहुत मासूम, बच्चों सा दिल, किसी की बात नही टालते थे।
मां क्यों उन्हें डाटती डपटती रहती थी, जैसे मुझे डाटती है।
बाबूजी कहते थे, मन की करो, जिसमें दिल नही लगता वो मत करो!
काश! बाबूजी की तरह मां भी मुझे समझती, हां पर मां मुझे बहुत प्यार करती है, बाबूजी की तरह!
पर बाबूजी अब मुझे प्यार नही करते, न जाने किस दुनिया में चले गए हैं, मैं बहुत रोया था उस दिन, मां भी उस दिन से कुछ और हो गई है!
बाबूजी नही हैं, अब खेती भी नही होती, मां कहती है नौकरी कर लो!
पर मैं नौकरी नही करना चाहता, मैं क्या करूं, नौकरी क्या बला है, मिलती ही नही!
घर जाऊं क्या, खुद से पूछता, फिर सोंचता नौकरी मिलने पर जाऊंगा, लेकिन ये मिलेगी कब ?
लोग तो यहां भगवान ढूंढ लेते हैं, मुझे तो नौकरी ही खोजनी है! मिलेगी ऐसा मुझे लगता तो है पर मैं नौकरी नही करना चाहता ।
नौकरी…नौकरी इस नौकरी ने मुझे बहुत रुलाया, निम्मी मुझे छोड़ गई, किसी और के साथ चली गई, क्यों बताया भी नही बस इतना ही कहा, नौकरी नही है न तुम्हारे पास!
उसे भी उसकी मां ने समझाया था, नौकरी वाले से शादी करना पर मेरे पास तो थी नही और मैं नौकरी करना भी तो नही चाहता न!
सभी दोस्त मुझे छोड़ कर कहीं और बसे हुए हैं, नौकरी करते हैं न!
मां कहती है वो लायक हैं और मैं?
मैं नालायक हूं, बस एक नौकरी नही करने से?
मुझे दर्द होता है, किसी के दर्द पर, मुझसे सहा नही जाता किसी के आंसू, हां मैं ठीक बाबूजी जैसा हूं, मां कहती है और गांव के लोग भी।
लो…चाट के ठेले पर बच्चे ने प्लेट आगे बढ़ाया, मैनें उसे एक टक देखा, नही रे…मेरे पास पैसे नही हैं, नौकरी नही करता न!
वो मुस्कुराया, मैं तो करता हूं न नौकरी, लो खा लो, कहते हुए प्लेट मेरे हाथों में धर दिया।
वो मुझे बाबूजी जैसे लगा, चमकती आंखे, हल्की मुस्कान, बिना पलके झपकाए मुझे देखना, बाबूजी याद आ रहे हैं, रोज आते हैं याद!
अकेले में अक्सर वो दिख जाते हैं, हां मेरी तलाश जारी है अभी ढूंढ रहा हूं…नौकरी!
गजेंद्ररथ ‘गर्व’ 9827909433
Gajendra Rath Verma ‘GRV’
