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#युवा_प्रेम: #आकर्षण या #मरीचिका ?
प्रेम एक ऐसा अहसास जो मन को महत्वाकांक्षा से भर देता है, प्रेम एक महान भावना जो मानव जाति मात्र ही नही बल्कि अनंत जीव को आत्ममुग्धता से मुक्त कर उनमें परपीड़, अहसास, सुख-दुख और त्याग के भावनाओं को जन्म देता है।
प्रेम ही शायद वह आश्चर्यजनक शब्द जिसको परिभाषित करना कठिन भी है और अत्यंत सरल भी, कठिन इस लिए क्योंकी प्रेम सीमाओं से परे है, प्रेम स्वार्थ से इतर है, और कठिन इस लिए क्यों की प्रेम को निभा पाना, प्रेम को समझ पाना, प्रेम को दर्शा पाना मानव कल्पना के प्रतिबिंब में अनेकोनेक तरह से अंकित है।
घर में छोटी बिल्ली के बच्चे को खाना देना प्रेम का ही प्रतिरूप है, वहीं किसी के प्रेम में उसकी विमुखता से खिन्न होकर अपराधी होना भी प्रेम के एक रुप का ही हिस्सा है।
हिंदी सिनेमा ने प्रेम को कई तरह से परिभाषित करने की कोशिश की है, स्कूल कॉलेजों में युवक का किसी सुन्दर, अच्छे कपड़े पहनने वाली, लंबे बाल, हाईहिल सेंडल वाली क्लासमेट से प्यार हो जाना, युवती का किसी महंगी बाईक वाले क्लासमेट को दिल दे बैठना क्या ये प्रेम कहा जा सकता है?
प्रेम के लिए प्रभाव बहुत जरुरी है, जब तक किसी व्यक्तित्व का प्रभाव न हो प्रेम का अंकुर नही फूटता, क्या हम अच्छी शक्ल, महंगे कपड़ों या स्टाईलिश दिखने वाले लड़के या लड़की के प्रति आकृष्ट हो रहे हैं, हो सकता है आकर्षण से ही प्रेम की शुरूआत हो, पर जरुरी नही ही इन विशेषताओं के बल पर ही प्रेम आगे बढ़ेगा।
प्रेम आकर्षण और प्रभाव से बढ़कर वह अभिव्यक्ति है जो हमें हमारे चाहने वाले के गुण दोष को नजर अंदाज कर उसमें प्रेम खोजता हो, यह जरुरी नही की हमने जीन गुणों को देखकर किसी से प्रेम किया वह गुण सदैव ही बना रहे, अक्सर देखा जाता है कि प्रेम को पाकर ही परिवर्तन की शुरूआत होती है, यूं कहें प्रेम पाने के लिए मन के संवेदनाओं से खेलकर आगे बढ़ने फिर पाकर बेपरवाह होने की कड़ी है, तो गलत न होगा!
प्रेम उम्र और अहसास को भी परिभाषित करता है, कहा जाता है प्रेम की शुरूआत उम्र की मोहताज नही, सच है पर उम्र के साथ ही प्रेम का प्रतिरूप बदलता भी है, इस बात से इनकार नही किया जा सकता।
आज मैं आप लोगों को अपनी जिंदगी में प्रेम: आकर्षण और मरीचिका शब्द को कुछ सच्ची घटनाओं से अर्थ देने की कोशिश करुंगा।
मुझे पढ़ाई जीवन के दौरान अपनी शिक्षिका से प्रेम हुआ शायद हर दूसरे बालमन को होता है, मैं उन्हें एकटक देखता, उनकी बातों को ध्यान से सुनता, उनके न आने पर परेशान होता, याद करता, दिखने पर खुश होता, मुझे नही पता था ये क्या था, पर मुझे उनकी एक झलक जिंदगी देती और मैं उस एक झलक के लिए कुछ भी कर लेता।
वक्त के साथ जिंदगी आगे बढ़ी, कॉलेज में एक लड़की ने प्रभावित किया, मन में जगह बनाई, शायद यह आकर्षण ही था जो मैं उसकी ओर खिंचा, उसे आदत में शामिल कर बैठा, क्या सच में मैं प्रेम कर बैठा था, मैं खु़द से सवाल करता जवाब कुछ नही मिलता और मैं उस अहसास को जीता जो मुझे खुशी देती, दोस्तों से उसकी बातें, यादों में उसको जीना, आस पास सिर्फ उसको ही महसूस करना, क्या ये प्रेम था?
समय चक्र चलता गया जिंदगी ने बहुत कुछ देखा, बहुत कुछ सहा और सांसों के साथ हाड़मास का शरीर आगे धकलाता रहा, कभी कभी हम कींकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, जिंदगी के ज्वारभाटे में निश्चेत शामिल हो जाते हैं।
आपके लिए कौन सही है ये आप तय नही कर पाते और आखिर तक अपने सही की खोज में भटकते रहते हैं, क्या पहली बार में ही मिला हुआ प्रेम आपकी अंतिम भावना है?
नही, बिलकुल नही प्रेम का रुप, स्वरुप वक्त और परिस्थितियों के मोहताज होते हैं, कई बार आपने देखा होगा प्रेम विवाह कर संतुष्ट हुए प्रेमियों के जीवन में ही लाख उतार चढ़ाव होते हैं क्यों? क्यों कि उन्होने प्रेम किया ही नही था, जी हां वो आकर्षण के मोहपाश को ही प्रेम समझने की भूल कर बैठे, जैसा की अभी, आज की युवा पीढ़ी करती है, हैंडसम लड़का, महंगी बाईक, गठिला बदन और हो गया प्यार, मिलना जुलना, मोबाइल पर लंबी बातें, विडियो चैट, डेटिंग-डिनर भावनाओं का समंदर, सीमाओं से उछलकर हो गए एक, कर ली घर से भाग कर शादी फिर क्या?
प्रेम के लिए मन को मन से समझने का वक्त कितना दिया, क्या बातें की, प्रेम पाने से संपूर्ण नही हो सकता, प्रेम आपके लिए क्या है, माता-पिता, भाई-बहिन के संबंधों से किसी अनभिज्ञ व्यक्ति को उंचा कर देना?
प्रेम को क्या परिभाषा दी आपने, अपने जन्मदाता को पीड़ा देकर आप अपनी जिंदगी में कितनी खुशियां भर सकते हैं?
मैंने कितने ही उदाहरण अपने आस पास ही देखे हैं, जहां बेटे-बेटियों को माता-पिता के आत्मसम्मान से कोई वास्ता नही, क्यों? क्या आपको अपने भीतर से जनने वाले के लिए आपके मन में कोई प्रेम नही, फिर आप प्रेम करने की बात कैसे कर सकते हैं, आपने प्रेम किया ही कैसे, जब आपने अपने ही भीतर के प्रेम को समझा नही?
प्रेम को जानने के लिए उस मां को समझना जरुरी है जिसने नौ माह आपको अपना खून पिलाया, इस संसार में लाने के लिए मृत्यु को मात दिया, संसार का अंग बनाकर आपको अच्छे-बुरे अहसासों के लिए तैयार किया, हम क्यों उस प्रेम को समझ नही पातें, क्यों उन आंखों को कभी पढ़ नही पाते जिन्होने हमेशा हमारे सुनहरे भविष्य का सपना देखा, उस पिता को समझना उतना मुश्किल भी नही जिन्होने आपके लिए अपनी जरुरतों को मार दिया, हमारी छोटी जरुरतों के लिए अपने आराम दांव पर लगा दिए, क्या आपने कभी अपने अंतर्मन से उनकी भावनाओं को महसूस किया, नही किया तो फिर आपने प्रेम कैसे कर लिया?
प्रेम कभी कभी स्वार्थ से भी लिपटा मिलता है, जी हां अपने परिवार को दुख देकर जब हम अपने प्रेम को आबाद करने की ठानते हैं तब वह प्रेम स्वार्थ से भर जाता है और स्वार्थ के लिए उठाया गया कदम कभी सार्थक नही हो सकता।
आपका पहला कर्तव्य क्या है, आपका उनके लिए जीना जिन्होनें आपको बनाया आपके लिए जिंदगी खपाई, भले ही उनका त्याग हमें नही दिखता और युवा पीढ़ी इसे अपना अधिकार मान बैठने की बड़ी भूल कर लेते हैं।
एक मां ने जब प्रेम में परिवार का मान दांव पर लगाती बेटी से सवाल किया कि, हमने जो तुम्हारे लिए किया तुम उन भावों का सम्मान ही कर लो, तो बेटी के जवाब ने उस मां के सीने को कितना छल्नी किया जो यह कहती हैं कि, ये तो हर मां-बाप का कर्तव्य है अपने बच्चों को पालें बढ़ा करें, आपने इसमें कौन सा अहसान किया हर मां-बाप ये करते हैं, आपके माता-पिता ने भी आपके लिए किया।
इस जवाब का प्रतिउत्तर क्या हो सकता है?
प्रेम इस तरह से सफल कभी हुआ ही नही, हम क्यों एक प्रेम के लिए दुसरे प्रेम को दांव पर लगाते हैं, क्यों हमारी भावनाएं प्रेम के लिए भिन्न हो जाते हैं?
अपनों की भावनाओं के लिए त्याग करना ही सच्चा प्रेम है, मेरी कहानी स्लीपर बॉक्स में मंजू ने कितनी सहजता से मुझे कहा था, मां-बाबू जी को लड़का पसंद है और मुझे भी, सच कहूं मुझे बड़ा गुस्सा आया था, मेरे अस्तित्व पर चोट लगा पर इस भावना को जब मैंने एक अंतराल के बाद जीया तो समझ पाया वो सही थी, उसका प्रेम सफल और पवित्र था, निस्वार्थ था, माता-पिता के मान से बड़ा कुछ हो सकता है हमारे आपके जीवन में?
तब मैं 12वीं पास करके मुंबई चला गया था बाबूजी के एक दोस्त थे जो धर्मेश दर्शन फिल्म प्रोड्क्शन में बतौर स्क्रिन प्ले लेखक काम करते थे, मैं उनके साथ ही था उस समय धड़कन फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम चल रहा था, फिल्म की टीम लंबे समय तक फिल्म की कहानी पर परिचर्चा करते मैं उन्हें ध्यान से सुनता, फिल्म का एक दृश्य आप सबों ने देखीं होंगी, शिल्पा जब रात के अंधेरे में अपने प्रेमी सुनील सेट्टी के साथ भागने के लिए दबे पांव सूटकेश लेकर निकलती है और बेबस पिता उसे रोक लेते हैं, पिता के हाथ में पिस्टल होता है और वह उस पिस्टल को बेटी के हाथों में देकर कहते हैं कि वो उसे मार दें और फिर अपनी मर्जी का कर लें, एक पिता की बेबसी बस इतनी ही है कि वो अपने बच्चों को अपने आप से ज्यादा प्रेम करता है, उनके लिए जीता है, मरता है और संताने क्या उनके प्रेम का सम्मान कर पाते हैं?
इस दृश्य में जो बदलाव था वो मेरी सोंच से उपजा था, मैंने शुरू से ही जन्मतादा के प्रेम को ही सर्वोपरी और नितांत पवित्र माना है।
आप खुद को कैसे आंकते हैं, आपके लिए क्या अच्छा होगा, क्या बुरा होगा आपने किनसे सीखा और आपने अपने जीवन का फैसला अचानक बिना किसी मंथन के उनके विरूद्ध कर लिया आपने प्रेम को कितना जाना?
वर्तमान युग मशीनों का युग है, दिनभर मोबाइल फोन के स्क्रिन पर टिकी नज़रें हमारी भावनाओं को किस कदर पत्थर कर रही है आप सोंच सकते हैं, हम किसी अनजाने के लिए अकेला रहना चाहते हैं, दिनभर चैट, बातें, आभासी दुनिया में भावनाओं का खेल खेलकर हम प्रेम पाने का शौक रखते हैं, हम अपनों से दूर जा रहे हैं, मरीचिका में आनंद खोज रहे हैं, क्या हममें अभी भी प्रेम शब्द को समझने की योग्यता है, शायद नही?
गजेंद्ररथ वर्मा ‘गर्व’ 9827909433
संपादक प्रदेशवाद