80 साल लगे हैं छत्तीसगढ़ को राज्य बनने में…पढ़िए चिंतन भरा विश्लेषण
छत्तीसगढ़ एक राज्य के रूप में अस्तित्व देने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न स्व. अटल बिहारी बाजपेयी जी ने क्या मांग रखी थी? पता तो होगा ही?
आज दीपावली से ठीक 11 दिन बाद छत्तीसगढ़ का स्थापना दिवस है, यह रजत जयंती वर्ष है लेकिन मेरा अध्ययन कहता है छत्तीसगढ़ मात्र 25 साल पुराना नहीं है।
अगर आज की त्योहारी व्यस्तता के बीच आप यह पोस्ट पढ़ रहे हैं, तो आगे मेरे लिखे पर चिंतन-मनन जरूर कीजिएगा। यह पोस्ट आपकी बहुत मदद करने वाली है।
छत्तीसगढ़ को मध्यप्रदेश से पृथक क्यों किया गया था? देश तो एक है, जमीन पर लकीरें नहीं होतीं, फिर क्या जरूरत थी मध्यप्रदेश के एक बहुत अहम भूभाग जिसके पास खनिज-संपदा की भरमार है/थी, उसे अलग राज्य का दर्जा देने की?
भारत एक संघीय ढांचे का देश है। इसे अंग्रेजी में फेडरल स्ट्रक्चर कहते हैं। लोकतंत्र में लोक के शासन की यही व्यवस्था होती है। संघीय ढांचा वास्तव में एक केंद्रीय प्रणाली है, जिसे राज्यों के माध्यम से संचालित किया जाता है। मोहल्ला एक है, लेकिन घर अलग-अलग हैं। जैसे जल का वितरण केंद्र के पास है लेकिन जल पर अधिकार राज्यों का विषय है।
यह भी सोचा जा सकता है कि देश को एक ही केंद्रीकृत सिस्टम से क्यों नहीं चलाया जाता, क्या जरूरत है अलग-अलग राज्य बनाने की?
भारत विविधताओं का देश है। अपनी भौगोलिक विशालता से अधिक यह सांस्कृतिक बहुलता रखता है। भारत के संघीय ढांचे में स्थानीय संस्कृति की महत्ता है।
देश का संघीय ढांचा/फेडरल स्ट्रक्चर संस्कृति के आधार पर खड़ा है। सांस्कृतिक बहुलता या कह लें वैरायटी को भी आप इस तरह समझिए कि आज भारत का सबसे बड़ा त्योहार है और दीपावली भी स्थानीय संस्कृति के मुताबिक हर राज्य में अपने-अपने तरीके से मनाई जाती है।
छत्तीसगढ़ में दीपावली का उल्लास अपनी समग्रता में गोवर्धन पूजा के दिन दिखाई देता है। बहुत पहले मेरा इस पर लेख आ चुका है। तो ऐसा नहीं है कि छत्तीसगढ़ दीवाली नहीं मनाता, बस छत्तीसगढ़ अपनी देवारी को गोवर्धन पूजा और मातर से अधिक सेलिब्रेट करता है। छत्तीसगढ़ का यादव समाज देवारी की सूचना अपने दोहों से लेकर आता और दोहों से ही बताता है कि पर्व का समापन होने जा रहा है। राऊत नाचा के आरंभ से सूचना प्रसारित होती है कि देवारी आगे हे…सकलाना हे…और राउत नाचा का स्वर गलियों में जब नहीं सुनाई में आ रहा, समझ आ जाता है कि पर्व के लगभग एक पखवाड़े को अब विदाई देनी है।
अटल जी ने जब रायपुर के सप्रे शाला मैदान से अपील की थी कि मुझे आप 11 सीट दे दो, मैं आपको छत्तीसगढ़ दे दूंगा। तो जाहिर है वो सिर्फ वोट नहीं मांग रहे थे। उन्हें पता था छत्तीसगढ़ के अपने अलग सांस्कृतिक अस्तित्व की अदम्य ईच्छा आजादी के बहुत पहले की है। वो काल जब गांधी जी भारत के सभी प्रकार के परिदृश्यों पर छाए हुए थे और अंग्रेजों के शासन में जितने भी भारतीय दल, संगठन और संस्थान आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन्हें पता था छत्तीसगढ़ की अपनी एक पृथक संस्कृति है। शायद गांधी जी भी यह जानते रहे हों।
साल 1920 के आसपास ही छत्तीसगढ़ के अस्तिव को रेखांकित कर दिया गया था। तो ऐसा नहीं है कि राज्य हमको गिफ्ट में मिल गया। इस भूमि को अपने सांस्कृतिक अस्तित्व, अपनी अलग पहचान के लिए 80 साल तक संघर्ष करना पड़ा। एक सदी में 20 साल कम। और अगर इसे और व्यापकता में देखें तो शहीद वीर नारायण सिंह तक जा सकते हैं, साल 1857 का समय।
पंडित सुंदरलाल शर्मा, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, बैरिस्टर छेदीलाल और छत्तीसगढ़ को राज्य की दृष्टि देनेवाले डॉ. खूबचंद बघेल से लेकर पत्रकार रहे चंदूलाल चंद्राकर तक… सब के सब महात्मा गांधी के अनुयायी थे। इसलिए मैंने लिखा है कि गांधी जी भी छत्तीसगढ़ को उसकी सांस्कृतिक पहचान के आधार पर आकार देने के विचार से सहमत रहे होंगे।
लेकिन सोचिए फिर भी 80 साल लग गए।
डॉ. खूबचंद बघेल को छत्तीसगढ़ का स्वप्नदृष्टा कहा जाता है। बहुत ध्यान से अगली पंक्ति पढ़िएगा कि वे छत्तीसगढ़ के अपने ‘साहित्य सृजन, लोकमंचीय प्रस्तुति और विशेष रूप से बोलचाल में छत्तीसगढ़ी’ के पक्षधर थे। साल 1967 में उन्होंने छत्तीसगढ़ भातृ संघ बनाया था। उनके पास राज्य का पूरा एक सांस्कृतिक कांसेप्ट था।
और आज देखिए, क्या स्वतंत्रता के लिए सरकारी नौकरी छोड़कर जेल गए डॉ. बघेल के सपनों का छत्तीसगढ़ है यह? छत्तीसगढ़ी में साहित्य सृजन की क्या दशा है? लोकमंचीय प्रस्तुतियों के बारे में बताने की जरूरत नहीं, हमारे यहां तो हमारे ही कवियों को मंच नहीं मिलता, लोक कलाकारों की अनदेखी फिर क्या बताई जाए? हां ये जरूर है कि छत्तीसगढ़ी को अहमियत मिल रही है, शहरी बोलचाल में छत्तीसगढ़ी स्थापित होने लगी है।
राज्य के साहित्य और लोकमंच की अनदेखी का सबसे एक ही, और सिर्फ एक ही मुख्य कारण है कि पॉलिसी मेकर्स छत्तीसगढ़ की संस्कृति का किताबी ज्ञान रखते हैं, इस दबाव में कि छत्तीसगढ़ में रहना है अन्यथा उन्हें यहां की संस्कृति से कोई लगाव नहीं है।
उन्हें मतलब है राजनीति से कि किसी तरह राज्य के नीति निर्माताओं में नाम या उनसे सीधा संपर्क हो जाए, फिर चांदी काटी जाएगी। अंग्रेजों के राज की तरह हमारे बीच गद्दार भी हैं, जिन्हें लोकभावना क्या अपने समाज से तक तिनके का सरोकार नहीं है।
और इसके लिए वे आपको भी जेल भिजवा सकते हैं जैसे डॉ. खूबचंद बघेल को जेल जाना पड़ा था। आपकी अपनी धरती पर यदि आप गुलामी महसूस कर रहे हैं तो अपने ही बीच सक्रिय उन लोगों को पहचानिए जो अपनी राजनीति, अपने धंधे और अपने रसूख के लिए फूट डाल रहे हैं। अंग्रेजों ने क्या किया था? भारतीयों में फूट डालकर राजपाट बहुत आसानी से हासिल कर लिया था। अंग्रेजों ने हमारे बीच ही गद्दार खोज लिए थे और उन्हें अपना पैरोकार बना आमजन के बीच सीखा-पढ़ा कर भेज दिया था। अंग्रेजों ने इन गद्दारों के बूते शारीरिक रूप से बाद में पहले मानिसक तौर पर हमें गुलाम बनाया।
अपने बीच पैसे, पद और प्रतिष्ठा के प्यासे ऐसे गद्दारों को पहचानिए, इससे पहले कि देर हो जाए और हम आपस में ही लड़ने लगें।
बने सुग्घर रहय देवारी! शुभकामनाएं!
अतः तापस (पत्रकार, कहानीकार, गीतकार, लेखक, सामाजिक चिंतक)
