कमर्शियल बनाम आर्ट सिनेमा पर छत्तीसगढ़ में बहस!
छत्तीसगढ़ में एक बात पर खूब रोडमराड मचा हुआ है! कमर्शियल और आर्ट सिनेमा बीते दिनों रायपुर में कार्यक्रम के दौरान बॉलीवुड के स्क्रिप्ट राइटर और छोलीवूड के फिल्म मेकर के बीच संवाद हुआ इस मौके पर छत्तीसगढ़ी सिनेमा के ऑक्सीजन कहे जाने वाले सतीश जैन ने कमर्शियल सिनेमा को सिनेमा के लिए बहुत जरूरी बताया उन्होंने कहा की मेकर्स और सिनेमा से जुड़े लोगों को आर्थिक रूप से जिंदा रखने के लिए कमर्शियल सिनेमा बहुत जरूरी है।
आर्ट और कमर्शियल सिनेमा में फर्क क्या है?
दर असल आम दर्शक को फ़िल्म के कमर्शियल या आर्ट होने से कोई फर्क नही पड़ता!
आम दर्शक फ़िल्म मनोरंजन के लिए देखता है और अब तो मनोरंजन के मायने भी बदल चुके हैं!
किसी फिल्म निर्देशक का विज़न कथानक को मनोरंजक तरीके से पर्दे पर उतरना होता है और वह इसके लिए भावनाओं के चाट मसालों पर ध्यान देता है।
आम जीवन दोस्ती दुश्मनी, प्रेम, प्रतिकार और हास्य से लबरेज है, और इन्ही भावों के साथ सिनेमा ने जन्म लिया, समाज और विचारों में बदलाव के साथ सिनेमा बदला, वास्तविक घटनाओं इतिहास के पन्नों और खास चरित्रों पर सिनेमा ने अलग मुकाम पाया और फिर इसी परिवर्तन को नाम मिला आर्ट का!
छत्तीसगढ़ की पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म कही देबे संदेश को सिनेमा के किस आधार का नाम दें?
यह विशुद्ध पारिवारिक प्रेम कहानी थी या फिर जाति, ऊंच नीच के भावों के साथ ग्रामीण परिवेश का ताना बाना?
उस वक्त में शायद यह कहानी पूरे भारत की थी ऐसे में इसे कमर्शियल कहें या आर्ट?
आज सिनेमा बेहद हो चली है, प्रेम और पारिवारिकता से इतर हत्या, सेक्स और चालाकियां फिल्मों को अलग करती हैं और एक खास दर्शक वर्ग तो अब वेबसीरीज़ से बाहर ही नही आता लेकिन एक बड़ा परिवर्तन सिनेमा में यह हुआ कि अब ऐसी कहानियों पर काम हो रहा है जिससे राजनीतिक फायदे हो सके!
कुछ भी करके कुछ ऐसा करने की जुगत का नाम सिनेमा हो चला है जो आम इंसान की मौलिक सोंच को बदल दे या उससे वो करवाए जो वो चाहते हैं?
यह चलन नया नही है दक्षिण भारत की सिनेमा इससे ही प्रभावित है शायद इसी लिए साउथ में सिनेमा के सुपरस्टार ही राजनीति के स्टार बनते आ रहे हैं?
Gajendra Rath Verma ‘GRV’
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