छत्तीसगढ़ के गांव का एक विद्यार्थी जब पहुंच गया रेडलाइट एरिया में…क्या हुआ पढ़िए पूरी कहानी!

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मेरी एक और कहानी पढ़िए जरूर!

बुधवारपेठ की वो शाम…

साल 2003, तब मैं पूणे के कस्बापेठ इलाके में (महाराज शिवाजी के किले के पास) एक छात्रावास में रहता था अपने रुममेट्स में मैं हिंदी का बोरिंग कवि माना जाता था।

जानबुझ कर मैं अपने साथियों को हिंदी की जटिल कविताएं पढ़कर सुनाता था जिन्हे हिंदी ढंग की आती भी नही थी, वो मुझे सुनते कम और गालियां ज्यादा देते और मैं मजा लेता।

उनमें से राजन सावंत गोवा का रहने वाला था जिसे हिंदी आती थी उसके साथ मेरी जमती भी थी, वहीं बैंगलोर से गिरीश कामथ जो लगभग मेरे जैसा ही दिखता था पर हिंदी टूटी-फूटी बोलता था और मेरे बड़े भाई जैसे अमित त्रिवेदी बलौदाबाजार से जिनके सामने मैं ज्यादा बोलने से बचता था।

सुबह के हैलो के बाद हममें कोई संपर्क नही रहता था, सभी अपने स्टडी में लग जाथे फिर शाम को हमारी मुलाकात होती, शाम से ये नही समझिएगा की 6 या 8 बजे, शाम का मतलब वहां रात 10 बजे के बाद, तो हम लोग रात 10 बजे के बाद इकट्ठे होते और साथ में खाना खाने के लिए निकलते।

हॉटेल हमारे निवास से दूर बुधवारपेठ में था और हॉटल के बीच की दूरी ही हमें एक दूसरे से बातें करने का मौका देती, चारों हमउम्र थे, हर तरह की बातें करते थे ज्यादातर अपने स्टडी से जुड़ी हुई।

रास्तेभर मैं बहुमंजिला इमारत की खिड़कियों से झांकती, इशारे करती लड़कियों को चोर नज़रों से ताकता रहता!
बुधवारपेठ मेरे लिए कौतुहल का विषय हुआ करता था, मैं एक छोटे गांव से मैट्रो लाइफ का हिस्सा बना था, बुधवारपेठ रेडलाइट एरिया था, जिसका पता मुझे वहां रहने के काफी दिनों बाद चला था और उधर मुझे अकेले जाना मना भी था, अमित भैया की कड़ी हिदायत थी।
रेडलाइट का मतलब भी शायद उस समय मैं कुछ और ही समझता था।

अपने गांव से हजार कोस दूर मां-बाबूजी के बिना ये दोस्त ही थे जो मेरे लिए सबकुछ थे।
मैं फिल्मी था, नए-नए सीन क्रिएट करता, फन्नी सिचुएशन बनाता, कॉमेडी करते रहता, इस करके सभी मुझे प्यार करते थे,जब कभी राजन जल्दी लौट आता हम दोनों पूणे की सैर को निकल पड़ते।
उसके मुंह से मैं भागते-दौंड़ते पूणे शहर की कड़वी-मीठी कहानियां सुनता, वो मुझे डराता फिर मेरा चेहरा देख हंस पड़ता।

डेक्कन जीमखाने से आगे निकलकर हमलोग अक्सर जंगली महराज रोड पर सुस्ताने बैठ जाते और वहां राजन मुझे इस रोड से जुड़े रोचक रहस्य बताता और मैं अचरज होकर मुंह फाड़े उसे एकटक देखता।

उन दिनों जंगली महाराज रोड जीगैलो (पुरुष वेश्या) का अड्डा हुआ करता था, जहां पर बड़े घर की लड़कियां, औरतें अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भटकती थीं!

हथेली पर लाल रुमाल बांधे छरहरे स्मार्ट लड़के वहां टहलते मिल जाते थे, राजन की बातें मेरे रौंगटे खड़े करने वाले होते थे, क्या ऐसा भी होता होगा? नही ये मुझसे मजाक कर रहा होगा, मुझे ऐसा ही लगता था।

मेरा मन फिल्म संस्थान के बनावटी लोगों में नही रमता था, मुंह बना बना कर बनावटी बातें करते लड़के-लड़कियां, हम जैसे गंवइहों को हीनभाव से भरते, उनके व्यवहार मुझे खटकते थे मैं उनसे बंचता था और ज्यादातर अपनी कविता, कहानियों में डूबा रहता था।

बाबूजी को चिट्ठियां लिखता शहर की चकाचौंध के बीच मन में उठते डर को उनसे साझा करता।

दगड़ू गणेश जी का मंदीर और महाराज शिवाजी का किला ये दो ही ऐसे जगह थे जहां मुझे सुकून मिलता था, महाराष्ट्र के गांवों से पहुंचे ग्रामीणों को घूमते देखता, उनसे बातें करता, यूं लगता अपने गांव की हटरी में टहल रहा हूं।

कभी कभार जीजामाई का लालमहल भी घूम आता।
वो यादगार घटना थी, रात गहरी हो रही थी, मैं अकेला भूख से तिलमिला रहा था, आज अमित और मुझे ही खाना खाने हॉटेल जाना था, राजन और गिरीश अपने-अपने घर गए हुए थे, तभी अमित का संदेश आया कि मैं अकेले ही खाना खा लूं उन्हे देर हो जायेगी, फिर क्या था मैं अकेले ही निकल पड़ा जानिबे मंजिल!

दगडू गणपति पार करके जैसे ही मैं बुधवारपेठ की गलियों में पहुंचा सहम गया, ए चिकने, अरे ओ हीरो, क्या रे मंगता क्या?

आवाज़ें कान खा रही थीं, तभी मेरी नज़र एक खिड़की पर इशारे करती लड़की पर पड़ी, छोटी आंखे, सपाट नाक, नेपाली लग रही थी, मुझे घूरता जान वह नीचे भागी और कुछ पल में मेरे पास ही खड़ी थी, मेरा हाथ पकड़े, न जाने क्या हुआ था मुझे वो आगे-आगे मैं पीछे-पीछे बस चला जा रहा था, भीतर बहुत सी लड़कियां आधे-अधूरे कपड़ो में, एक मोटी सी आंटी आंखों में काजल लगाए यमद्वार की राक्षसी लग रही थी।

उसने आंखों के इशारे से कमरे में जाने को कहा, लड़की मुझे अंदर ले गई, मैं वहां का नज़ारा देखना चाहता था, बड़े दिनों से उत्सुकता थी, फिर क्या था मैं कमरे से निकलकर बाहर झांकने लगा, लड़कियां ही लड़कियां, बाप रे, ये क्या था!
मैं पहली बार ऐसा नज़ारा देख रहा था।

हमारे गांव में तो महिलाओं के घाट पर भी नज़र जाना पाप था यहां तो पाप का तालाब लबालब भरा था!
ए नया है क्या इधर?
मैं मुड़ा और हां में सर हिला दिया।
लड़की ने मुझे खींच कर अंदर बिठाया और दरवाजा बंद कर दिया।
तुम्हारा नाम क्या है?
मैंने उसे एकटक देखते हुआ पूछा, उसने मुझे देखा और मुस्कुरा दिया, क्या करता है, पढ़ता है या नौकरी करता है?

पढ़ता हूं, मैं तख्ते से उठते हुए बोला, उसने मुझे खींच कर फिर बिठा दिया, तुम्हें पता है न तुम यहां क्यों आए हो?
मैं हड़बड़ा कर बोला, अरे मैं कहां आया हूं, वो तो तुम मुझे पकड़ कर ले आई!
पैसे कितने रखा है, मैं निशब्द उसकी ओर देखता रहा, क्या देख रहा है, कभी लड़की नही देखी क्या?
मैंने शर्म से आंखे निची कर ली!
रानी हो गया क्या तेरा, चल जल्दी कर, बाहर से आवाज आई।
अच्छा तुम्हारा नाम रानी है, मैंने फिर से आंख मिलाकर सवाल किया।
हां तो क्या!
ओरिजन नाम है, मैंने एकटक देखकर पूछा?
थोड़ी देर घूरने के बाद उसने कहा, नही फर्जी है, हम दोनों हंस पड़े।

मैं उसके बारे में जानने का प्रयास कर रहा था लेकिन वो थी की कुछ बताना ही नही चाहती थी, मम्मी-पापा हैं, मैंने सकुचाते हुए पूछा, उसे गुस्सा आ गया, ए सुन, सही बता तू पुलिसवाला है कि रिपोर्टर?
साला जब से आया है सवाल पे सवाल पूछे जा रहा है!
वह अपना दुपट्टा गले में लपेटकर गुस्साइ आंखों से घूरने लगी, मुझे भी डर लगने लगा, चल तेरा बटूआ दे, ए देख क्या रहा है, दे बोली तो दे?

वो मेरे बहुत करीब आ गई, मैंने डरते हुए अपना पर्स निकाला और उसके हाथ में धर दिया।
पर्स से रुपए गिनते हुए वह बातें भी कर रही थी,

क्या रे किधर से आया है?
छत्तीसगढ़ से, मैं उसे ध्यान से देख रहा था,
ये किधर है?
मध्यप्रदेश से अलग होकर नया राज्य बना है, साला अब ये मध्यप्रदेश कौन सी चिड़िया का नाम है! वो रुपए गिनते हुए बोली।

मैं समझ गया था अब उसे ज्यादा कुछ बताने, समझाने का कोई मतलब नही था, मेरे पर्स में कुल दो सौ तिहत्तर रुपए थे, वो रुपए हाथ में लहराते हुए मुझे घूरने लगी, तू तो बड़ा सस्ता निकला रे, चल कट ले, ये तेरे बोलबच्चन का टैक्स है, कभी और आना तब पूरा पिक्चर दिखाएगी मैं, देख क्या रहा है?

मैं मन ही मन मुस्कुरा रहा था और लगातार उसकी आंखों में देखे जा रहा था।

कुछ देर में मैं नीचे सड़क पर था, मैंने पलटकर फिर से खिड़की पे नज़र दौड़ाई, वो वहीं खड़ी मुझे देख रही थी, शायद कुछ कहना चाहती थी, उन आंखों में बड़ा दर्द था।

अपनी कटिली बातों से, अपने बनावटी गुस्से से वह अपनी आत्मा पर लगे जख्मों को छुपाने का मंचन कर रही थी, कोशिश लाजवाब थी।
उस रात मैं बिना खाना खाए लौट आया था।

Gajendra Rath Verma ‘GRV’
“छाया चित्र लेखक गजेंद्र की है, लाल महल परिसर पुणे, महाराष्ट्र”

लेखक गजेंद्ररथ वर्मा अब एक फिल्म लेखक, निर्देशक और पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं और लगातार छत्तीसगढ़ी राजभाषा के साथ हसदेव जंगल बचाने की मुहिम चला रहे हैं।

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