वर्ष 2006 तब मैं अपनी पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म बैर की शूटिंग बालोद के जूँगेरा गांव में कर रहा था।
इस छाया चित्र में फ़िल्म के हीरो Karan Khan ( Tahir ) करन खान, मैं गजेंद्ररथ ‘गर्व’ लकिरदार कुर्ता, धारदार शक्ल, तेरे नाम कट हेयर स्टाइल में और चिरपरिचित Sanjay Mahanand के साथ अन्य क्राउड कलाकार साथी दिखाई दे रहे हैं।
यह सीन अखाड़ा प्रतियोगिता का है जिसमें विलेन और हीरो का अखाड़ा लड़ाई फिल्माया जा रहा है, हीरो को लड़ाई जीतने के लिए उत्साहित करने का सीन है।
साल 2005 पुणे से लौटते वक़्त मेरी ट्रेन भोपाल में छूट गई, मुझे प्रतीक्षालय में समय गुजारना था, अकेला पुरानी यादों में खोए बैठा था, मामा गांव की यादें मस्तिष्क में पर्दे की तरह चल रही थी और याद आ रही थी मेरी माँ की बुआ यानी मेरी नानी बुआ।
वह एक शानदार कहानीकार थी, मैं बचपन में उनसे हर रात सोने से पहले कहानियां सुनता था, उनकी एक कहानी मुझे याद आ रही थी और मैंने उसे लिखना शुरू किया।
गांव के जमीदार के घर पहटिया और पहटनिन काम करते थे, पहटिया कामचोर था, दीपावली की एक रात दोनों शर्त लगाते हैं, जो सुबह पहले उठेगा वही दिन भर काम करेगा।
सुबह सूरज सर पे चढ़ चुका था दोनों को जमीदार बार बार पूछ रहा था दूसरे नौकरों ने बताया दोनों अब तक नही आये हैं।
जमीदार का खास फोकटु उन्हें बुलाने निकला, घर का कपाट बजाकर चिल्लाता है कोई प्रतिक्रिया नही मिलने पर भीतर देखता है दोनों खाट पे पड़े हैं, इतना देख फोकटु चीखते हुए बाहर भागता है और गांव भर ढ़िढोरा पीट देता है कि पहटिया-पहटनिन मर चुके हैं।
इधर पहटिया दम्पति सब जान कर मरने का नाटक कर रहे हैं, पूरा गांव इकठ्ठा, दोनों को समसान ले जाने की तैयारी चल रही है, टेढ़ी आंख से पहटिया सब देख रहा है, गांव के मुख्य चौराहे से होते दोनों की अर्थी अंतिम क्रिया के लिए चिता पर लिटाने की तैयारी है तभी, बाथरूम करने के लिए हलकान पहटिया के गाल पर आग की सुलगती खरसी आ चिपकती है फिर क्या था, मारे दर्द के चीखता हुआ पहटिया अर्थी से उठ खड़ा होता है और पास रखे डंडे से पहटनिन को पीटना शुरू कर देता है, पहटनिन भी अर्थी से उठ कर भागने लगती है और मुर्दों को इस तरह देख अंतिम यात्रा में पहुंचे ग्रामीण भी भाग खड़ा होते हैं! आगे की कहानी जिन्होंने फ़िल्म देखी है उन्हें पता होगा!
और इस तरह इस कहानी की पटकथा तैयार कर मैं रायपुर में शूटिंग के लिए प्रोडक्शन हाउस तलाश कर रहा था, उस समय रायपुर दुरदर्शन में शाम को कॉमेडी शो के साथ गानों का चित्रहार चलता था, जिसे स्वप्निल म्यूज़िक के मनोज वर्मा प्रोड्यूस कर रहे थे, मैं उनसे मिलकर शूटिंग कॉस्ट जानने उनके कार्यालय पहुंच गया, उनको कहानी सुनाई तो उन्होंने इस कहानी को बड़े परदे की फ़िल्म बनाने का सुझाव दिया और फ़िल्म में सहभागी बनने को तैयार हो गए!
मैं रायपुर और छोलीवुड में नया था मनोज जी संगीत से जुड़े थे और कई डॉक्यूमेंट्री बना चुके थे,उनके कई परिचित भी इस प्रोजेक्ट में जुड़े जिनमें Shailendra Dhar Diwan उस जमाने के जाने माने एलबम एडिटर और सिनेमेटोग्राफी में जानेमाने नाम थे, एंथोनी गार्डिया व बालोद के Shekh Matin भाई भी हमारे साथ जुड़ गए, रायपुर के स्वप्निल म्यूज़िक स्टूडियो में स्क्रिप्ट और संवादों में नया कुछ जोड़ा घटाया गया फ़िल्म के लिए हीरो हीरोइन कास्टिंग की शुरूआत हुई और इस तरह फ़िल्म की शूटिंग छत्तीसगढ़ के बालोद में चालू की गई।
फ़िल्म को रिलीज़ 2008 में किया गया, तब फिल्मों को लेकर अब जैसा माहौल नही था, छत्तीसगढ़ी फ़िल्म प्रदर्शन के लिए टॉकीज नही मिलते थे फिर भी बैर बालोद के साथ महासमुंद, रायपुर और कुछ ही जगह लग पाई, फ़िल्म अब तक डिजिटल में भी प्रदर्शित नही हो पाई मैंने Manoj Verma जी से इस बारे में चर्चा भी की लेकिन उन्होंने बताया कि फ़िल्म का प्रिंट खराब हो चुका है जिसे हार्ड डिस्क से रिकवर कर पाना सम्भव नही!
नानी बुवा की कहानी से जन्मी बैर जैसी ऐतिहासिक फ़िल्म अब शायद दोबारा नही देखा जा सकेगा…ख़ैर!
इस छाया चित्र ने यादें जरूर ताजा कर दी बीते जमाने की, अब मनोज भैया नेशनलअवार्डी फ़िल्म भूलन द मेज़ से अंतरराष्ट्रीय पटल पर परिचित हैं, शैलेन्द्र भैया तोला ले जाहूं उढ़रिया जैसी सफल फ़िल्म का निर्देशन कर नाम कमा चुके हैं और मैं अब एक फ़िल्म लेखक की पहचान से ज्यादा पत्रकार के रूप में चिन्हा जाता हूं!
इस बात की खुशी है कि इस फ़िल्म से जुड़े सभी लोग सफल हैं और लगातार छत्तीसगढ़ फ़िल्म इंडस्ट्री को अपना बेस्ट दे रहें हैं, मैंने भी इस फ़िल्म के बाद कई और सफल फिल्में लिखी और अब कोशिश यही है कि नानी की कहानियों से कोई और नई पटकथा सिरजाऊँ!
Gajendra Rath Verma ‘GRV’