एक अद्भुत आत्मकथा! दुकानों में काम करते पढ़ाई करने वाले फिल्म लेखक की अनछुई बातें…जरूर पढ़ें!

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मैंने पढ़ने के लिए नौकरी की और जब पढ़ाई के बाद नौकरी मिली तब कर नही पाया!

जमाना चप्पल के पट्टे में कील ठोक कर पहनने का था, पर मेरे पास चप्पल नही थे, बाबूजी के पास थे जो काफी घिस चुके थे, मां को भी तब चप्पल पहनते नही देखा था, बाबूजी मैट्रिक पास थे, मां बताती हैं शादी के बाद भी पढ़ने जाते थे और दादी के घर पर न होने जैसे मौकों पर मां ही उनके बालों में कंघी घुमाती थी, मुझसे पहले भी उनको एक संतान था जो नही रहा और काफी समय बाद भगवान गंधेश्वर के प्रताप से मुझे पाने की कहानी बाबूजी की डायरी से मैंने जाना था ख़ैर!
तब मैं यही कोई 6वीं कक्षा का छात्र था, बाबूजी पेपर बांट कर घर का गुजारा चलाते थे, दादाजी की मौत के बाद चाचाजी के साथ दादी और छोटी बुवा हमसे अलग रहते थे, यानी की बस चूल्हा अलग जलता था।
मुझे पढ़ने का बड़ा शौक था दिनभर किताबों में घुसा रहता, मां डरती की कहीं ज्यादा पढ़ लिख कर बावला न हो जाए और मना करती, चाचा भैंस चराने भेज देते तो कभी कुछ और काम में लगा देते, तब का बचपन आज जैसा न था।
स्कूल मेरे लिए पसंदीदा जगह थी मैं कभी स्कूल जाने से नही बंचा तीसरी क्लास के बाद!
अब तो छठी में था, पेपर बांट कर गुजारा नही चलता था, मां खेतों में काम करती पर तब मजदूरी 12 रुपए थी और बाबूजी को महीने के डेढ़ सौ रुपए मिलते थे, उतने में घर चल जा रहा था पर मैं भी कुछ करना चाहता था और अपने स्कूल के सामने ही एक ठेले पर खाई खजाने की दुकान डाल ली, अब मेरी दिनचर्या सुबह पेपर बांटने के बाद नहा कर स्कूल ड्रेस में दुकान खोलने और फिर क्लास टाइम तक बाबूजी को दुकान हैडओवर कर पढ़ाई!
पढ़ने का शौक था, जेब खर्च के पैसों से कॉमिक्स लेकर पढ़ते हुए मेरे पास सैकड़ों कॉमिक्स इकट्ठे हो चले थे ऐसे में कॉमिक्स किराए पर भी देने लगा, उससे भी पैसे आने लगे, उपन्यास का जमाना था, बाबूजी पढ़ने के साथ लिखते भी थे तो उपन्यास भी रखने लगे।
अखबार, पत्रिकाओं में बाबूजी की आलेख, कहानियां तब खूब छपते और मैं उन्हें अपने दोस्तों को दिखाता भी।
दिन बीत रहे थे अब मुझे 8वीं पास कर हाईस्कूल जाना था, मेरी दुकान बंद करनी पड़ी पर अब मैं उमेश फोटो कॉपी टाइपिंग सेंटर में काम करने लगा, फिर वही दिनचर्या, पेपर बांट कर सुबह से दुकान खोलना और पढ़ाई भी, शाम को छुट्टी के बाद सीधा दुकान, घर जाते रात के 8 और कभी 9 बज जाते।
इस बीच भी मेरी किताबों के प्रति लगाव कम न हुई थी और अब तो फिल्मों को लेकर मेरा रुझान काफी बढ़ गया था।
1999 का वह दौर जब मैं हाई स्कूल का सांस्कृतिक प्रमुख हुआ करता था, छत्तीसगढ़ी भाषा में मेरा राष्ट्रीय पर्वों पे भाषण, NSS की ट्रिप्स, नाटकों के मंचन और न जाने क्या क्या, यह मेरा गोल्डन टाइम था, स्टार हुआ करता था तब मैं हाई स्कूल खरोरा का!
पर इन सब के साथ उमेश और नरेंद्र चाचा की दुकान की जिम्मेदारी भी मेरी थी, तब खरोरा में उमेश फोटो कॉपी और फोटो स्टूडियो मेरी पहचान हुआ करती थी।
स्व.ब्रिजभूषण सर ने तब स्टूडेंट ऑफ द ईयर पर तीन हजार का पुरस्कार रखा था और मैंने कभी सोंचा नही था की मैं स्टूडेंट ऑफ द ईयर हो सकता हूं, पर मैं हुआ और बहुत सारे इनाम भी जीते, तब अपने ही संस्था भरत देवांगन हाई स्कूल में एक दिन का प्रिंसिपल भी बना, प्राचार्य स्व. करमोकर सर ने अपने हाथों से मुझे अपनी ही कुर्सी पर बिठाया था, मैं सकुचाते हुए बैठा और फिर उठ खड़ा हुआ, सभी शिक्षक बहुत स्नेह करते और मैं पढ़ाई में भी अच्छा ही था।
तब आकाशवाणी में राष्ट्रीय सेवा योजना पर मेरा व्याख्यान सुनकर बाबूजी बहुत खुश हुए थे।

सन 2000 हमारी प्रादेशिकता बदल चुकी थी, बारहवीं के मार्कशीट पर मध्यप्रदेश की जगह अब छत्तीसगढ़ लिखा था, छत्तीसगढ़िया तो हम सब पहले से थे पर अब प्रशासनिक रूप से भी हो चुके थे।
उमेश फोटो कॉपी में बैठ कर ही मैंने अपना कॉलेज का एडमिशन फॉर्म भरा था।
(मेरी कॉलेज लाइफ की कहानी स्लीपर बॉक्स सच्ची कहानी में मेरे ब्लॉग gajendrarath.blogspot.com में पढ़ा जा सकता है)
इससे पहले मेरी पहली नौकरी थी शिक्षाकर्मी की जो मुझे बारहवीं में टॉप करने भर से मिल गई थी, बाबूजी ने कहां नौकरी करना चाहते हो तो कर लो फिर पढ़ाई का क्या? मैंने आगे की पढ़ाई चुनी और वैसे भी बाबूजी मुझे पढ़ने के लिए फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट पुणे भेजना चाहते थे जिसके लिए मुझे ग्रेजुएट होना था।
फस्ट ईयर के बाद कॉलेज की पढ़ाई के साथ मैं अब मार्कफेड में अस्थाई नौकरी करने लगा इस बीच मैं व्यापम के प्रतियोगी परीक्षाओं में भी खुद को आजमा रहा था और चुना भी जा रहा था, पटवारी के लिए मेरी ट्रेनिंग रायपुर के सेमरिया में शुरू हुई पर कुछ समय बाद मन उचट गया, मार्कफेड में रहते हुए ही मैंने FTII पुणे ज्वाइन की, मार्कफेड के मेरे साथी आज भी मेरे संपर्क में बने हुए हैं तो वहीं मुंबई और पुणे के दोस्तों संग भी खूब जमती है।
इस बीच गुजरात के वडोदरा स्थित रामानंद सागर फिल्म सिटी में भी रहना हुआ फिर लौट कर मुंबई धर्मेश दर्शन प्रोडक्शन में फिल्म स्क्रिप्टिंग और फिर वापस छत्तीसगढ़ में मातृभाषा की प्रादेशिक फिल्मों का लेखन, इन पर तो मैं लिख ही चुका हूं।
इस तरह से वर्ष 2008 एक ऐसा साल गुजरा जो मैं कभी भूल नही पाऊंगा, इस साल ने पहले तो खुशी दी फिर छीन ली, मेरी पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म बैर इसी साल रिलीज हुई और बाबूजी भी इसी 2008 में मुझे छोड़ गए और मैंने अपने आप को एकात्म कर दंतेवाड़ा बस्तर की वादियों में 2साल खुद को दिन दुनिया से अबूझ रखा।
इस बीच बचेली में व्यापम की एक परीक्षा से मैंने कटेकल्याण में शिक्षक की नौकरी फिर पाई पर ज्वाइन नही किया, पता नही क्यों वहां रहने के बाद भी उस जॉब के लिए मन नही बना और मैं मार्कफेड जिला मुख्यालय में क्लर्क होते हुए दंतेवाड़ा के एक अखबार बस्तर इंपैक्ट में लिखना शुरू कर दिया और इस तरह मेरी पहचान कॉलमिस्ट की हो गई!
2010 में फिर रायपुर लौटा और शुरू हुई एक और फिल्म की पटकथा, शैलेंद्रधर दीवान की तोला ले जाहूं उढ़रिया सच कहूं तो इस फिल्म ने मेरे लिए सफलता के द्वार खोले, इस बीच मैंने रेडियो रंगीला में RJ की भूमिका भी निभाई, देशबंधु अखबार में थोड़े समय के लिए खबरें भी लिखी इसी बीच 2012- 13 में IBC24 न्यूज चैनल में बतौर छत्तीसगढ़ी बुलेटिन प्रोड्यूसर अपॉइंट भी हुआ, चैनल में रहते हुए ही कई फिल्में लिखी, चैनल के लिए बहुत से नए प्रोग्राम बनाए, जिनमें मोर माटी के नाचा खास थी।
चैनल में बतौर छत्तीसगढ़ी संपादक होते हुए 2016-17 से मैं सक्रिय रूप से समाजसेवा और राजनीति से भी जुड़ा।
इस तरह मैंने पढ़ाई के लिए कई नौकरियां की पर पढ़ाई के बाद मिली सरकारी नौकरियां नही कर पाया, शायद यही मेरी नियती है।

आज मैं दो बेटियों का बाप हूं बच्चियों की मां और मेरी मां मिला कर कुल 5 जनों का परिवार है, उनके लिए कमाने का जरिया अभी बस कंटेंट राइटिंग और प्रदेशवाद पोर्टल का विस्तार जारी है, हां इससे पहले यही कुछ 40 दिन मैंने विस्तार न्यूज नेटवर्क में भी छत्तीसगढ़ी के लिए सेवाएं दी पर अब जब उम्र 43 की पड़ाव पर है तब अपने पसंदीदा स्क्रिप्ट पर एक फिल्म बनाना चाहता हूं अभी उसी उधेड़बुन में लगा हूं।
गजेंद्ररथ ‘गर्व’
Gajendra Rath Verma ‘GRV’ 9827909433

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